यह कहानी है लक्ष्या शर्मा की — एक साधारण सी लड़की, लेकिन असाधारण हौसलों वाली।
एक ऐसी बेटी, जिसके माता-पिता ने उसका सपना देखा — “हमारी बेटी डॉक्टर बनेगी!”
जब पहली बार NEET की परीक्षा दी, तो सिर्फ़ 82 अंक आए।
ना कोचिंग थी, ना गाइडेंस, ना कोई सुविधा… सिर्फ़ एक सपना था।
बहुत से लोग हार मान लेते, लेकिन लक्ष्या ने नहीं मानी।
उसका सबसे बड़ा सहारा बने — उसके माता-पिता।
जिन्होंने कभी बेटी की काबिलियत पर शक नहीं किया।
बहुत सीमित संसाधनों के बावजूद, उन्होंने दिन-रात मेहनत की।
अगले साल 648 अंक आए, लेकिन General category होने के कारण सरकारी सीट नहीं मिली।
फिर भी लक्ष्या नहीं टूटी।
उसने कहा — “अब या कभी नहीं!”
फिर से तैयारी की… फिर से मेहनत की…
और इस साल, उज्ज्वल रैंक के साथ सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाख़िला पक्का किया।
ये सिर्फ़ एक छात्रा की नहीं,
ये हर उस बेटी की कहानी है, जो संघर्षों के बीच भी सपने देखती है।
सलाम है ऐसे माता-पिता को,
जो बेटियों की शिक्षा को बोझ नहीं, सम्मान समझते हैं।
जो समाज की सोच से नहीं डरते — बल्कि उसे बदलते हैं।
क्योंकि जब साथ हो परिवार का… और हो भीतर एक अडिग ज़िद,
तो कोई भी सपना अधूरा नहीं रहता।
I always used to think of these lines when I used to look at Lakshya during this year…
“मैंने उसको
जब-जब देखा,
लोहा देखा,
लोहे जैसा–
तपते देखा,
गलते देखा,
ढलते देखा,
मैंने उसको
गोली जैसा
चलते देखा!”